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गुरु, छात्र और स्वदेश-विदेश का मनोभाव: एक बुज़ुर्ग का दृष्टिकोण



By:RajendraDate:2025-04-14
भारतीय समाज में शिक्षा को सिर्फ ज्ञान प्राप्त करने का माध्यम नहीं, बल्कि जीवन के मूल्य और मर्यादा सीखने का एक पथ भी माना गया है। इसमें गुरु का स्थान सबसे उच्च होता है। आज जब शिक्षा व्यवस्था में बदलाव हो रहा है, और विदेशी शिक्षा का प्रभाव बढ़ रहा है, तो कई लोग अनुभव करते हैं कि शिक्षा महंगी हो गई है, और कई बार अन्याय भी महसूस होता है।
लेकिन जब हम इस बदलाव को एक बुज़ुर्ग के दृष्टिकोण से देखते हैं, तो प्रश्न उत्पन्न होता है: क्या इसमें सच में किसी ने अन्याय किया? क्या गुरु दोषी है? या क्या छात्र की सोच या संस्कार ग़लत थे?
ऐसा कहना असंस्कारी सा लगता है कि गुरु ने अन्याय किया। गुरु व्यक्ति हो सकता है, पर उसका पद मर्यादा से जुड़ा होता है। ग़लतियाँ संभव हैं, लेकिन गुरु की नीयत, समर्पण और उद्देश्य को लेकर संशय करना एक संस्कारी मानसिकता में संभव नहीं होता। गुरु अगर कभी ग़लत भी हो जाए तो भी उसके प्रति सम्मान बना रहे, यही भारतीय परंपरा का अंग है।
लेकिन जब कोई छात्र बचपन से ही विदेश की सोच लेकर बड़ा होता है, तो क्या उसके संस्कार ग़लत कहलाएंगे? और जो छात्र स्वदेश में रहकर विदेशी ज्ञान प्राप्त करता है, क्या उसके गुरु ने उसे ज़्यादा सुविधा दी? यहाँ एक अंतरद्वंद्व जन्म लेता है।
मेरे जीवन के अनुभव के आधार पर कहूँ तो मैंने देखा है कि जो छात्र मुझे देशभक्त प्रतीत होता था, वह विदेश चला गया, और जिसे मैं विदेश-भक्त समझता था, वह स्वदेश में ही रह गया। लेकिन इन दोनों के फ़ैसले भक्ति पर नहीं, आर्थिक अवस्थाओं पर आधारित थे। जो विदेश गया, उसने ज़्यादा कमाई के इरादे से किया; जो वापस आया, वह वहाँ के ख़र्च और जीवन के दबाव को न झेल सका।
आज की शिक्षा में विदेशी तकनीक, जैसे कि ट्रांजिस्टर, आईसी, सीएमओएस, एएसआईसी, वीएलएसआई, और डिजिटल थेरेपीज़ जैसे कीमोथेरेपी और हार्मोनल मेडिसिन का प्रभाव साफ़ दिखाई देता है। इन सभी का ज्ञान भारत में आज उपलब्ध है, लेकिन उन्हें प्राप्त करने का ख़र्च और तरीके विदेशी ढाँचे से जुड़े हुए हैं। हमारे समय में जब शिक्षा ज़्यादा सरल और साधारण रूप में थी, तब इन सब का कोई ज्ञान ही नहीं था। आज जब यह सब कुछ है, तो उस तक पहुँच बनाए रखना और उसे समझना अपने आप में एक संघर्ष है।
तो क्या ग़लती किसी की थी? शायद नहीं। ग़लती व्यक्ति में नहीं, परिस्थितियों में थी। लेकिन यह भी कहना उचित होगा कि असली समस्या यह थी कि दोनों तरफ़ से साहस की कमी थी। जो विदेश गया, उसके पास इच्छा थी लेकिन इच्छा-शक्ति नहीं थी; इसीलिए वह सिर्फ़ पैसा कमाने गया, ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं। और जो विदेश गया और वापस आ गया, उसने संघर्ष करने का साहस नहीं दिखाया, इसीलिए वापस लौट आया। तो देखा जाए तो सच्चा साहस, जो केवल ज्ञान के लिए हो, दोनों में नहीं था। यही शिक्षा के असली उद्देश्य से दूरी का प्रमाण है।
समाधान यह है कि हम किसी को दोषी ठहराए बिना इस समस्या को समझें। शिक्षा महंगी हो सकती है, लेकिन अगर उसका उद्देश्य व्यक्ति को स्वयं से मिलाने का है, तो वह हमेशा अमूल्य ही रहेगी। छात्र अगर विदेश गया है तो उसे दोष न देकर, समय और परिस्थितियों के आधार पर उसकी यात्रा का सम्मान करना चाहिए। और अगर वह वापस आया है, तो यह भी देखा जाए कि उसने क्या सीखा, क्या जिया, और उस अनुभव से क्या लौटाया।
शिक्षा का मूल तत्व यह है कि व्यक्ति स्वयं को समझे, और समाज में अपनी भूमिका तय करे। गुरु चाहे देश का हो या विदेश का, छात्र चाहे स्वदेश में हो या बाहर, यदि वे एक-दूसरे को संवेदनशील दृष्टि से देखें, तो शिक्षा एक सार्थक और समझपूर्ण यात्रा बन सकती है।यही एक बुज़ुर्ग का दृष्टिकोण है — जीवन के अनुभव से निकला, और नई पीढ़ी के लिए एक सोच का द्वार खोलने वाला।